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“अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक हो सकता है, लेकिन अमेरिका का दोस्त होना निश्चित रूप से घातक है.” सालों पहले अमेरिकी विदेशी नीति के घाघ खिलाड़ी हेनरी किसिंजर ने ऐसा कहा था. 70 के दशक में किसिंजर प्रेसिडेंट रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका के विदेश मंत्री थे. वर्षों बाद अमेरिकी कूटनीति अपने इस पूर्व विदेश मंत्री के कथन को सच साबित कर रही है. पहले तो भारत पर अपनी एकतरफा कूटनीतिक और व्यावसायिक इच्छाएं थोपना और इंडिया द्वारा इनकार करने पर 50 फीसदी की गैर न्यायपूर्ण टैरिफ लगाना, ऐसी ही अमेरिकी नीति का उदाहरण है. आइए इसको विस्तार से समझते हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी व्यवस्था में अमेरिका और सोवियत रूस शक्ति के दो केंद्र थे. 1990 आते-आते सोवियत रूस इस रेस से बाहर हो गया और संयुक्त राज्य अमेरिका इस वर्ल्ड ऑर्डर का एकमात्र बॉस बन गया. लेकिन वर्ष 2000 के बाद उदारवाद और वैश्वीकरण की सीढ़ी पर सवार भारत की अर्थव्यवस्था ने आर्थिक चमत्कार किए. पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 8 फीसदी की विकास दर ने भारत की इकोनॉमी की तस्वीर बदल दी. आज भारत दुनिया की सप्लाई चेन का अहम हिस्सा है. हम 4 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. तीसरा पायदान भारत की पहुंच से कुछ ही अरब डॉलर दूर है.
वहीं चीन ने भी पिछले दो से ढाई दशकों में आश्चर्यजनक आर्थिक तरक्की हासिल की है. 2001 में WTO में शामिल होने के बाद चीन ने वैश्विक व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई. 2024 में ग्लोबल एक्सपोर्ट में चीन का हिस्सा 14 फीसदी है. बुनियादी ढांचे और औद्योगीकरण में भारी निवेश ने इसे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का केंद्र बनाया. तकनीकी उन्नति, 5G-6G का विकास, सेमीकंडक्टर और AI ने चीन को नवाचार में अग्रणी बनाया. 2024 में 18.3 ट्रिलियन डॉलर के साथ चीन की जीडीपी अमेरिका से कुछ ही कम है.
ढाई दशकों में हिल गई है वर्ल्ड ऑर्डर की पुरानी बुनियाद
विश्व मानचित्र पर भारत-चीन के उभार ने और पुतिन के नेतृत्व में रूसी राष्ट्रवाद की प्रचंड लहर ने दुनिया की स्थापित व्यवस्था में हलचल पैदा कर दी.
BRICS और SCO जैसे मंचों के जरिए भारत-चीन और पुतिन ने गैर-डॉलर व्यापार को बढ़ावा दिया और अमेरिकी वित्तीय प्रभुत्व को चुनौती दी.
विश्व बैंक के अनुसार, BRICS देश वैश्विक GDP का 26% हिस्सा रखते हैं, जो G-7 के 44% से कम है लेकिन ये डाटा तेजी से बढ़ रहा है. भारत और चीन रूस का 80 फीसदी से अधिक कच्चा तेल खरीदते हैं.
हालांकि भारत चीन के साथ सीमा विवाद और प्रतिस्पर्धा के बावजूद रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखता है. यानी कि भारत न तो अमेरिकी खेमे में पूरी तरह है और न ही चीनी-रूस के खेमे में. लेकिन ब्रिक्स का विस्तार, SCO के फैलते दायरे से पश्चिमी दबदबे का संतुलन बिगड़ गया है.
अमेरिकी टैरिफ: सिर्फ व्यापार नहीं, नंबर वन- ताज छिनने का डर
ट्रंप द्वारा भारत, चीन और दर्जनों अन्य देशों पर नए टैरिफ थोपना महज आर्थिक हथियार नहीं, बल्कि अमेरिकी सत्ता की चिंता है. ट्रंप प्रशासन का असल डर यह है कि यदि भारत और चीन जैसे देश रूस के साथ मिलकर वैश्विक संस्थाओं, व्यापार और फाइनेंस में अमेरिका को दरकिनार करने लगें,तो वाशिंगटन की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी. यही वजह है कि अमेरिका अब ‘टैरिफ के टोटकों’ में फंसा है.
पूर्व विदेश राज्य मंत्री और आर्थिक मामलों के जानकार जयंत सिन्हा ने आजतक से बातचीत में कहा कि पिछले 100 वर्षों से देशों के बीच एक अलिखित समझौता था कि जितना व्यापार रहेगा उतना ही लाभदायक होगा.साथ ही ये देश इस मसले पर भी एकमत थे कि जिस देश की विशेषज्ञता जिस सामान के उत्पादन में हो वो देश वही प्रोडक्ट बनाएगा या उत्पादन करेगा. लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब ट्रंप को लगने लगा कि अमेरिका सारा खुद प्रोडक्ट बनाएगा. खुद पैदा करेगा. जयंत सिन्हा ने कहा कि ये बड़ा बदलाव है लेकिन अमेरिका को समझना पड़ेगा.
उन्होंने कहा कि जिस तरह से परिस्थितियां चल रही है उससे हर कोई को नुकसान होगा. लेकिन ज्यादा हानि अमेरिका को होगी.
ट्रंप ने भारत पर पहले टैरिफ 25% किया और फिर इसे बढ़ाकर 50% कर दिया. उन्होंने इसकी दो मुख्य वजहें बताई. पहला रूस के साथ भारत का ऑयल ट्रेड और दूसरा अमेरिकी सामानों पर भारत की हाई टैरिफ.
डॉलर का कमजोर होता प्रभुत्व
लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रंप की पैंतरेबाजी वैश्विक व्यवस्था पर नियंत्रण बनाए रखने की रणनीति है. अमेरिका को डर है कि भारत-रूस-चीन गठजोड़ डॉलर की प्रभुत्व को कमजोर कर सकता है. 2024 में वैश्विक व्यापार में डॉलर का हिस्सा 58% था, जो कि 2000 में 71% के मुकाबले काफी कम है.
भारत और रूस की मुद्राएं और BRICS की गैर-डॉलर पहल इस प्रभुत्व को और चुनौती दे रही है.
ट्रंप और अमेरिकी रणनीतिकारों की रणनीति रूस को अप्रत्यक्ष रूप से कमजोर करने की भी है, क्योंकि अमेरिका का रूस के साथ व्यापार केवल 3.5 बिलियन डॉलर का है. ट्रंप भारत और चीन जैसे रूस के बड़े व्यापार साझेदारों पर दबाव डालकर रूस की अर्थव्यवस्था को निशाना बना रहे हैं.
भारत पर टैरिफ और पाकिस्तान को रियायतें भारत को रूस से दूरी बनाने के लिए दबाव का हिस्सा हैं.
लेकिन गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट संदेश दिया कि भारत के लिए उसके किसानों का हित, पशुपालकों का हित सर्वोच्च है.
चीन ने अमेरिकी दादागीरी की कड़ी आलोचना की है. भारत में चीन के राजदूत जु फीहोंग ने बिना नाम लिए कहा कि ‘अगर धमकाने वाले को एक इंच दे दिया जाए तो वह आगे एक मील लेने पर अड़ जाएगा.’
भारत में रूस के राजदूत डेनिस अलीपोव ने अमेरिका के इस कदम को ‘पश्चिमी पाखंड; बताया है.
बावजूद इसके ट्रंप अपने पुराने स्टैंड पर कायम है. ट्रंप ने गुरुवार को व्हाइट हाउस में कहा कि जब तक भारत के साथ मौजूदा विवाद का समाधान नहीं होता है तब तक व्यापार वार्ताएं आगे नहीं बढ़ेगीं,
इस बीच भारत-चीन और रूस के बीच गतिविधियां तेजी से बदल रही हैं. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ 7 साल बाद चीन यात्रा पर जा रहे हैं बल्कि पुतिन भी लंबे समय बाद भारत यात्रा पर आ रहे हैं.
ये सारी गतिविधियां बहुधुव्रीय विश्व व्यवस्था की दस्तक हैं. ट्रंप की हर टैरिफ चाल के बाद दुनिया बहुपक्षीयता, नई साझेदारियों और आर्थिक विकल्पों की ओर बढ़ रही हैं. भारत जैसे देश अपनी विदेश नीति और आर्थिक नीति में पहले से कहीं ज्यादा निर्भीक और आत्मनिर्भर दिख रहे हैं, यही ट्रंप का असली डर है.
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